Friday, November 04, 2005

सुबह

हर शाम जिन्दगी, सोचती है उस सुबह के बारे मेँ
जो आज आयी थी, आयी थी और, सूरज की किरणो मे भर

कितनी आशाऐँ लायी थी

उजाला ऐसी शक्त्ति का, जो मेरे अरमानो को पहचान ने

और पूरा करने मे मेरे साथ रहती

जब गरम रेते पर चलते चलते, पावोँ के तले जल जाते
तो निर्मल पानी की धारा बन के, कदमो को आकर छू जाती
और कभी हताश हो कर रुक जाता तो, बहती हवा के जरिऐ
दिखला जाती कि चलते रह कर ही मै ला सकता हूँ

अपने और अपने अपनो के जीवन मे शीतलता, रुकना तो
एक अँत है

वो आशाऐँ, वो शक्त्ति और वो सुबह की किरणे
जिनहेँ छूने की चाह हर शाम होती है

हर रोज सुबह आती है, और साथ उन किरणो को भी लाती है
पर जब मैँ जाग कर उन किरणो से मिलता हुँ
तब तक मेरे हिस्से की आशाऐँ और साहस
इस सँसार मे इस तरह घुल मिल जाता है कि
सारा दिन यह पहचान ने के प्रयास मे गुजर जाता है
कि किस राह पर चलने का सँदेश ले कर आयी थी सुबह

हर दिन युँही गुजर जाता है, और हर शाम मै यही सोचता हुँ


Originally written on 8th Feb, 2004, Hyderabad

अनजानापन

कल शाम फिर मिला मुझसे मेरा अनजानापन
युहीँ अकेला रोज कि तरह जाग रहा था
सूनी दीवारो मे जो झरोखा नही था उससे झाँक रहा था
तभी वो बोला धीरे से कँधे पर रख कर हाथ
कब तक मुझसे आँख चुरा कर रहोगे गुम यूँ

बस फिर एक बार हो गया शुरु, सिलसिला उसी तॅक का
कि कौन है ज्यादा सक्षम, मेरा ये दुनिया से लगाव

या फिर वो अनजानापन

अनजानापन खुद से, खुद के डर से, खुद की नाकामी से

या फिर जो पाने की चाहत है, उसके परिणामो से

हर बार उस अनजानेपन ने यह एहसास दिलाया
गीली रेत सी दुनिया इस दौड मे, यूँ जो दौडता हूँ मै

कभी सँमुदर, कभी मरुस्थल सोचता हू मैँ

अनजान उस मँजिल से हूँ फिर भी चलता जाता हूँ
कभी तो राहेँ पहुँचेगी ऐसी मँजिल पर जिस मँजिल

के रुप से अब तक अंजान हूँ मैँ

Originally written on 28th Jan, 2004, Hyderabad