Tuesday, December 12, 2006

बेरंग

मैने मेरे ज्ञान से पूछा, बता, गर पता तुझको है
हर दिन जो ये नया सा लगता
जीवन उसमे नया क्या है ?
वो ही तमाशे, वो ही है मेले
फिर भी हर पल लगे अकेले
खुद से सब अंजान है क्यो?

हर चेहरा, हर सुबह अनोखा
रंग भरे आँखो मे हजारो
निकल पडे लेने को ट्क्कर
इस जग की हर चट्टानो से

शाम ढले, बेरंग सा हो कर हर चेहरा
क्यो दिखता य़ू बजारो मे
जैसे अपना ही कोई रंग
ढूढता उन गलियारो मे

जिन गलियारो मे, झिलमिल करती रंगबिरंगी, टिम-टिम करती,
कितनी है रोशनी, उन बत्तियोँ की
फिर भी जो रंग सुबह था चेहरे पे
वो दिखा नही इन रंगीन उजियारो मे

ऐ हवा

ऐ हवा
मुझसे भी तो दो बाते करती जा
बैठा हूँ यहाँ ऐसे की
सिर्फ तुझसे ही बस मेरा मिलन हो

मुझ को यूँ छू कर जो गुजर रही है
एक पल को भी न ठहर रही है
ऐसे न उडा कर मेरी परछाईयाँ मुझ से
अपने संग न लेकर दूर जा

जब तीव्र गति से बहती हो
और रोम-रोम से कहती हो
बूँदो की तरह तुम भी तो कभी
पानी की सतह से उडो कभी

हो कर मन के सब गलियारो से
छू कर मन के सब कोनो को
महको और महका दो ऐसे
जिस से ये जीवन नया लगे

जब दूर कँही जाने की चाह हो
और मुझसे अलग होने की बात हो
दो पँख कँही से ढूँढ के ला दो
संग-संग तेरे उडने के
ख्वाब को मेरे सच करवा दो