Friday, November 04, 2005

अनजानापन

कल शाम फिर मिला मुझसे मेरा अनजानापन
युहीँ अकेला रोज कि तरह जाग रहा था
सूनी दीवारो मे जो झरोखा नही था उससे झाँक रहा था
तभी वो बोला धीरे से कँधे पर रख कर हाथ
कब तक मुझसे आँख चुरा कर रहोगे गुम यूँ

बस फिर एक बार हो गया शुरु, सिलसिला उसी तॅक का
कि कौन है ज्यादा सक्षम, मेरा ये दुनिया से लगाव

या फिर वो अनजानापन

अनजानापन खुद से, खुद के डर से, खुद की नाकामी से

या फिर जो पाने की चाहत है, उसके परिणामो से

हर बार उस अनजानेपन ने यह एहसास दिलाया
गीली रेत सी दुनिया इस दौड मे, यूँ जो दौडता हूँ मै

कभी सँमुदर, कभी मरुस्थल सोचता हू मैँ

अनजान उस मँजिल से हूँ फिर भी चलता जाता हूँ
कभी तो राहेँ पहुँचेगी ऐसी मँजिल पर जिस मँजिल

के रुप से अब तक अंजान हूँ मैँ

Originally written on 28th Jan, 2004, Hyderabad

1 Comments:

At 12:53 AM, Blogger Nutan Singh said...

You write well. Will like to read more.

 

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