अनजानापन
कल शाम फिर मिला मुझसे मेरा अनजानापन
युहीँ अकेला रोज कि तरह जाग रहा था
सूनी दीवारो मे जो झरोखा नही था उससे झाँक रहा था
तभी वो बोला धीरे से कँधे पर रख कर हाथ
कब तक मुझसे आँख चुरा कर रहोगे गुम यूँ
बस फिर एक बार हो गया शुरु, सिलसिला उसी तॅक का
कि कौन है ज्यादा सक्षम, मेरा ये दुनिया से लगाव
या फिर वो अनजानापन
अनजानापन खुद से, खुद के डर से, खुद की नाकामी से
या फिर जो पाने की चाहत है, उसके परिणामो से
हर बार उस अनजानेपन ने यह एहसास दिलाया
गीली रेत सी दुनिया इस दौड मे, यूँ जो दौडता हूँ मै
कभी सँमुदर, कभी मरुस्थल सोचता हू मैँ
अनजान उस मँजिल से हूँ फिर भी चलता जाता हूँ
कभी तो राहेँ पहुँचेगी ऐसी मँजिल पर जिस मँजिल
के रुप से अब तक अंजान हूँ मैँ
1 Comments:
You write well. Will like to read more.
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