Sunday, May 28, 2006

साया

“साया” न जाने कहाँ खोया है मुझसे
या गुमसुम सा बैठा है
किसी कोने मे छिप के
नराज है मुझसे या
इस अँधेरे से घबराया है

मुझसे नराज होना
ऐसा तो रोज की ही कहानी है
मुझसे रुठ कर दूर जाना
ये तो कोई नई मनमानी है

पर शायद वो मुझसे नराज नही
उसे इस अँधेरे से भी तो प्यार नही

हो सकता है कि करता हो इंताजार
वो भोर की किरणो का
अब उसे इस चिराग के जलने का एतबार नही

बस ये ही सोच कर
दूर छुप गया है कहीँ
मुझे इस बुझे चिराग के धुँऐ के साथ
छोड दिया है यहीँ

सुबह तक तो शायद
ये धुँआ भी न रहे
और किसी के साथ होने का
गुमाँ भी न रहे

इस रात ने जो समेटे है
मेरे धुँधले से निशाँ
उस सुबह तक तो शायद
वो निशाँ भी न रहे

2 Comments:

At 10:29 PM, Blogger Synchronicity Diva said...

Very nice. Lot of depth.

 
At 4:17 AM, Anonymous Anonymous said...

Really nice. Feels like something missing from your life, am I right?

 

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