बेरंग
मैने मेरे ज्ञान से पूछा, बता, गर पता तुझको है
हर दिन जो ये नया सा लगता
जीवन उसमे नया क्या है ?
वो ही तमाशे, वो ही है मेले
फिर भी हर पल लगे अकेले
खुद से सब अंजान है क्यो?
हर चेहरा, हर सुबह अनोखा
रंग भरे आँखो मे हजारो
निकल पडे लेने को ट्क्कर
इस जग की हर चट्टानो से
शाम ढले, बेरंग सा हो कर हर चेहरा
क्यो दिखता य़ू बजारो मे
जैसे अपना ही कोई रंग
ढूढता उन गलियारो मे
जिन गलियारो मे, झिलमिल करती रंगबिरंगी, टिम-टिम करती,
कितनी है रोशनी, उन बत्तियोँ की
फिर भी जो रंग सुबह था चेहरे पे
वो दिखा नही इन रंगीन उजियारो मे